8.4.09

नया पादुका पुराण

इन दिनों पादुका का आधुनिक रूप जूता पत्रकारों का हथियार हो गया है। जूता चर्चा में है और नेता साकते में। इराक से शुरू हुई यह कहानी वाया लंदन भारत तक पहुंच गई है। इराकी पत्रकार ने जार्ज बुश पर अपने देश में हो रहे अमरीकी अत्याचार के खिलाफ जूता दे मारा था। पत्रकार गिरफ्तार कर लिया गया और उसे सजा हुई। इसके बाद चीन के प्रधानमंत्री कामरेड बेन जिआबाओ पर लंदन में जूते फेंके गए। फेंकने वाला पत्रकार नहीं था। अब भारत में दैनिक जागरण के एक ऐसे पत्रकार ने जूता चलाया है जिसे सबसे शांत और सुलझा हुआ माना जाता है।
दरअसल इन घटनाओं के मूल में जो बातें हैं वह खबरों की हुल्लड़बाजी में दब गई है। इराकी पत्रकार का जूता उस बुश के चेहरे पर था जिसने एक खराब शासन से मुक्ति दिलाने के नाम पर इराक को तबाह किया। अर्थात एक राक्षस के चंगुल से मुक्ति दिलाने वाला दूसरा राक्षस ही निकला। नए राक्षस के पास मीडिया की ताकत थी उसने अपना चेहरा भद्र दिखाया। दुनिया का भयादोहन कर इराक पर हमला करने वाले के पास अपने कारनामे को जायज ठहराने का ठोस कारण मौजूद नहीं था।
जिआबाओ पर फेंके गए जूते का अर्थ भी साफ था। तिब्बतियों की आजादी और उनके मानवाधिकार हनन करने वाले साम्यवादी दंभी की ओर उछला जूता सोदेश्य था। तिब्बत को चीन ने जिस तरह हड़पा और वहां जिस तरह के अत्याचार किए हैं यह किसी से छिपा नहीं है। सर्वहारा समाज की तानाशाही की बात करने वालों ने एक देश को तबाह कर दिया। वहां किसी प्रकार की क्रांति नहीं की, लोगों पर अपना विचार थोप दिया। जूता इसका विरोध कर रहा था।
गृहमंत्री चिदंबरम पर उछले जूते का भी अर्थ है। लेकिन यहां वह असली वजह छिपी हुई है। अपने पेशेवर मित्रों में जरनैल बेहद सुलझे इंसान माने जाते हैं। उनके इस कारनामे से उनके मित्र और जानकार हैरत में हैं। आखिर जरनैल ने ऐसा किया क्यों। घटना के बाद जरनैल भी उस असली वजह का उल्लेख नहीं कर रहे जिसने उन्हें विरोध का यह तरीका अपनाने के लिए मजबूर किया। मीडिया में चीखोपुकार मची है। हर कोई जरनैल के किए को गलत ठहरा रहा है और जरनैल भी उसी राग को दोहरा रहे हैं।
हम भारतीय हैं। असली बात छिपा लेना हमारी फितरत में शामिल है। जूता फेंकना हमारे देश में कोई नया फैशन नहीं है। आजादी से पहले से हम जूता फेंक रहे हैं और अर्थ को अनर्थ के रूप में पेश कर रहे हैं। आजादी से पहले नीलहे किसानों की दुर्दशा पर लिखे गए नाटक का मंचन हो रहा था। एक दिन नाटक देखने ईश्वर चंद विद्यासागर भी पहुंच गए। नाटक में नीलहे किसानों के ऊपर अत्याचार करने वाले अंग्रेज जमीदार की भूमिका निभा रहे पात्र का अभिनय इतना दमदार था कि विद्यासागर जैसे सुशीक्षित व्यक्ति आपा खो बैठे और उन्होंने अपनी पादुका उतार कर दे मारी। यह मालूम नहीं कि उनकी पादुका अभिनेता को लगी या नहीं, पर नाटक खूब चला। विद्यासागर जैसी हस्ती की पादुका ने नाटक की विषयवस्तु से ज्यादा उसकी प्रस्तुति को प्रमुख बना दिया। नीलहे किसानों पर हो रहा अत्याचार गौण हो गया। नाटक जागृति फैलाने की जगह कुछ और हो गया।
साहित्य में एक अवस्था होती है साधारणीकरण। यह वह अवस्था जो साधना में योग की होती है। जिस तरह योग में साधक अपनी निजता भूल जाता है उसी तरह साहित्य में सुधी पाठक, श्रोता और दर्शक अपनी निजता भूल जाता है। वह थोड़ी देर के लिए साहित्य की विधा के साथ जीता है। वह पात्रों में जीने लगता है। यही अवस्था साधारणीकरण है। विद्यासागर भी साधारणीकरण की अवस्था में चले गए थे और अत्याचार देखकर यह भूल गए थे कि यह महज नाटक है जो असल जिंदगी में हो रहे जुल्म की अभिनय प्रस्तुति भर है। योगी और पाठक में एक अंतर है। योगी जब तक चाहे अपने आपको लीन रख सकता है, पाठक ऐसा नहीं कर सकता। यही कारण है कि पाठक जब साधारणीकरण से संसारीकरण में लौटता है तो उसे अपनी बीती स्थिति पर खीज होती है। उसे लगता है कि वह कैसे पात्रों के साथ हंसता-रोता रहा। दिल्ली की घटना में जरनैल की हालत भी कुछ-कुछ वैसी है और उस घटना का ब्योरा देने वालों विश्लेषण करने वालों चरित्र नीलहे किसानों पर अत्याचार दिखाने वाले नाटक कंपनी के संचाल जैसा। जरनैल का जूता कई सवाल और अर्थ लिए हुए है।
जरनैल लंबे समय से दैनिक जागरण में हैं। वे जोड़तोड़ नहीं जानते। अपने काम से काम रखते हैं और मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि उनकी कापी बाकी के उछलू रिपोर्टरों से कहीं ज्यादा अच्छी होती है। जागरण में काम करने के दौरान के अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि उन्होंने कभी किसी चूक पर ध्यान दिलाए जाने पर अपनी वरिष्ठता की धौंस नहीं जमाई। बहुत विनम्र शब्दों में सुझाव को माना। बाकी लोगों के व्यवहार को यहां लिखकर दुश्मन पैदा करने का साहस मुझमें नहीं है। कई लोग अब जागरण में नहीं हैं जिनकी कापी पढऩे से पहले हम रोया करते थे। गलती पर ध्यान दिलाए जाने पर अफसरी घुड़की के साथ और भी कई प्रकार के दंड सहने पड़ते थे। उस अखबार में जरनैल लंबे समय से टिके रहे तो इसका कारण यह नहीं कि उनकी वहां बहुत इज्जत हो रही थी या है। जाहिर है हिंदी पत्रकारिता में जगह बनाने के लिए जरूरी हथकंडे उनके पास नहीं हैं। देखते-देखते अफसरी छांटने वाले कई लोग दूसरी जगहों पर गए और वापस इज्जत के साथ लौटे भी। जरनैल जहां के तहां रह गए। उनके पास जो बीट रही उसमें पृष्ठभूमि के अभाव में वे कुछ उल्लेखनीय नहीं कर पाए। मसलन उनका पूरा व्यक्तित्व एक रिपोर्टर के पीछे छिप गया। यह बात कहीं न कहीं उनके अवचेतन में है।
इसके अलावा हमें आज के दौर में नेताओं के करीबी पत्रकारों और उनके प्रायोजित साक्षात्कारों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। लाइट कैमरा एक्शन वाली पत्रकारिता के इस युग में प्रिंट को नेता दोयम दर्जे का समझते हैं। उनके सवालों को टाल कर निकल जाना उनकी आदत है, क्योंकि प्रिंट के पास शब्द है और खबर प्रस्तुति के लिए स्थान। छवि दिखाऊ पत्रकारिता में शब्द से ज्यादा अंदाज और बाइट्स का महत्व है। ऐसे में प्रिंट के किसी पत्रकार का सवाल टाले जाने से दुख होना स्वाभाविक है। जरनैल की घटना के बाद कोई दर्जन भर ऐसे पत्रकार ऐसे मिले जिन्होंने कहा कि जो कुछ हुआ वह गलत नहीं था। उपेक्षा से आहत होने पर कोई भी वही करता जो जरनैल ने किया है। ऐसी प्रतिक्रिया देने वालों में से कोई भी पत्रकार सिख नहीं था। कहने का अर्थ यह कि यह संयोग है कि जरनैल सिख हैं और उनका सवाल सिखों की भावना से जुड़ा था। यदि वे कुछ और पूछ रहे होते तो भी नेता का व्यवहार वही होता जो हुआ और पत्रकार का विरोध वैसा ही रहता जैसा हुआ। हम यह नहीं कह रहे हैं कि जरनैल ने जो कुछ किया वह सही है, लेकिन खुद को लोकतंत्र का ठेकेदार घोषित करने वालों को यह समझ लेना चाहिए कि जब कलम की उपेक्षा होगी तब हथियार ही उपाय बचेगा। विरोध का तरीका बदल सकता है, विरोध नहीं।
नरेन्द्र अनिकेत
उप समाचार संपादक
दैनिक भास्कर
जालंधर।

1 comment:

  1. पत्रकारों के पक्ष में भी आपने अच्‍छी दलील दी है ... पर गलत तरीका किसी को पसंद तो नहीं आता।

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